Monday 8 December, 2008

फ़ुलवा चारपाई पर पडी प्रसव पीडा से कराह रही थी |


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सावन का महीना था और बारिश का मौसम चल रह था ।फ़ुलवा चारपाई पर पडी प्रसव पीडा से कराह रही थी ।पड़ोस की कुछ अनुभवी स्त्रिया भी उनके पास थी ।दोपहर के तीन बजने को आ चुके थे |लेकिन फ़ुलवा कि तबीयतमें कोई सुधार न था ।उसकी हालत बिगड़ती जा रही थी ।हरिया और दीनू बाहार नीम के पेड के नीचे बैठे हुक्कापी रहें थे ।पारो दौडती हुई आती है |

हरिया से - “ क्यों जी फ़ुलवा की तबीयत खराब होती जा रहीं है ,सुबह से शाम होने को आयी लेकिन कोई मुनाफा नजर नहीं आता,मेरी मानो तो फ़ुलवा को शहर ले चलो”|

हरिया - “ क्यों दीनू तुम किया कहते हो ? “

दीनू - “हा भैया में भी यही सोच रहा था “|

दीनू बैलगाड़ी में बैल जोत देता है तो सभी फ़ुलवा को चारपाई सहित बैलगाड़ी में लिटा देते है ।पारो कुछ कपड़े ओरअन्य आवश्यक सामान बैल-गाड़ी में रखती है ओर सभी शहर कि तरफ चल देते है |

वे लोग टेढे-मेढे ओर उचे-नीचे रस्ते से होते हुए तीन चार घण्टे बाद शहर पहुँच जाते है । शहर के बाहर सरकारी अस्पताल था,दीनू बैलगाड़ी को अस्पताल के अन्दर ले जाकर रोक देता है ।पारो ओर हरिया फ़ुलवा के पास रहते है

तो दीनू उतर कर अस्पताल के अन्दर पहुँचता है ।उसे अस्पताल में कोई नजर नहीं आता,दूर कोने में एक चारपाई पड़ी थी,चारपाई पर अस्पताल का एक कम्पाउन्डर पड़ा बीड़ी पी रहा था ।

दीनू -” क्यों भैया डाक्टर साहब नहीं है किया ?”

कम्पाउन्डर -”घर जा चुके है ।”

दीनू -”भैया मेरी पत्नी बहुत बीमार है डाक्टर साहाब को बुला दो ना।”

कम्पाउन्डर -”में नहीं जाता तुम्हें जाना है तो वों सामने पीला मकान डाक्टर साहब का ही है बुला लाओ।”

दीनू ने कुछ देर कम्पाउन्डर की तरफ़ देखा और फिर वह डॉक्टर साहब के मकान की तरफ़ चल देता है | वह दरवाजे पर पहुँच कर दरवाजा खटखटाता है | कुछ देर के बाद दरवाजा खुला |

-”क्या है? क्यों दरवाजा तोडे जा रहे हो ?”-डॉक्टर साहब दरवाजा खोलते की चिल्लाये |

दीनू (हाथ जोड़ते हुए ) -”डॉक्टर साहब मेरी पत्नी को बच्चा लीजिये,हम लोग दूर गाँव से आये है | वह बहुत बीमार है साहब |” दीनू की आँखें भर आई थी |

डॉक्टर साहब (झुंझलाते हुए ) - “मेरे पास समय नहीं है | डॉक्टर खन्ना के यहाँ मुझे पार्टी में जाना है | कही और ले जाओ ,जाने कहा से चले आते है ,गंवार कही के |” यह कहते हुए डॉक्टर साहब दरवाजा बंद कर लेते है |

दीनू ने जवाब सुना तो वह वापस दुखी होकर चल देता है वह निराश होकर कम्पाउन्डर के पास आता है और बोला -”भैया शहर में कोई दूसरा अस्पताल भी है किया |”

कम्पाउन्डर -”हाँ है अंदर शहर में एक प्राइवेट नर्सिंग होम है |” दीनू के दिल को कुछ धीरज बाँधता है |वह उधर बैलगाड़ी की तरफ दौड़ता है जंहा फुलवा करह रही थी |
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Saturday 29 November, 2008

मोहिनी के पैर नशे में लड़खड़ा रहे थे |


******* रात के लगभग साढ़े ग्यारह बजने को जा रहे थे , मिस्टर चढ्ढा और रूबिया दोनों घर आ चुके थे और दोनों बैठे खाना खा रहे थे |सुखिया खाना परोस रही थी | अचानक टेलीफोन की घंटी बजती है तो रूबिया उठ कर फोन उठाती है |

-”हेलो”

-”हेलो”

-”रूबिया कैसी हो तुम ?” उधर से मिसिज टंडन बोल रही थी |

-”अच्छी हूँ “

-”ऐसा है कल शाम को घर जल्दी आ जन कल ऐश्वर्य का जन्म दिन है और हम पार्टी दे रहे है और हाँ भाई साहब को भी बता देना “|

-”ठीक है हम आ जायेंगे |”

-”और हाँ मोहिनी को भी बता देना |”

-”ठीक है में उसे भी फोन पर बता दूंगी |”

-”अच्छा तो गुड़ नाईट |”

-”गुड़ नाईट |”

रूबिया खाना खाकर अपने कमरे में चली जाती है तो सुखिया चंदन को भी उसके पास लिटा आती है | वह बर्तन साफ़ करती हे ओर चली जाती हे । दूसरे दिन शाम को नो बज चुके थे । पार्टी शुरू हो चुकी थी |मिसिज टंडन आने वालो का स्वागत कर रही थी |इस समय चार साल की एश्वेर्या छोटे बच्चो के साथ खेलने में मस्त थी | रूबिया और चढ्ढा साहब भी पार्टी में शामिल होने के लिए आते है |
कुछ देर बाद मोहिनी भी आती है | उसके साथ उसकी बेटी प्रिया भी थी |वह अब डेढ़ साल की हो गई थी और अब अपने पैरो पर चलने लगी थी |पार्टी चल रही थी नौकर खाना परोस रहे थे | होल में एक तरफ कुछ नवयुवको और नवयुवतियों का समूह था जो पाश्चात्य संगीत की धुनों पर थिरक रहा था | लगभग रात के बारह बजे पार्टी ख़त्म होती है | सभी लोग अपने घर जाने लगे थे |
मोहिनी के पैर नशे में लड़खड़ा रहे थे | उसका ड्राइवर उसे पकड़ कर गाड़ी में बैठता है और उसे लेकर घर चला जाता है | चढ्ढा साहब और रूबिया भी अपने घर की तरफ़ चलते है |इस समय उन दोनों के पैर भी इधर-उधर डोल रहे थे | सुखिया ने उन्हें देखा तो वह उन दोनों को पकड़ कर उनके कमरे में छोड़ आती है |
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Sunday 23 November, 2008

दीनू खाना खा कर जाकर चारपाई पर लेट जाता है कुछ देर बाद फुलवा भी चली आती है |


दीनू चिलम लेकर आ जाता है | वह उसे हुक़्क़े पर रख देता है तो दोनों हुक्का गुडगुडाने लगते है | दीनू कुछ परेशान था लेकिन हरिया खुश नगर आ रहा था |

हरिया -”दीनू तुम्हारे लिए एक खुशखबरी है |”

दीनू (चौककर ) -”क्या खुशखबरी है ?”

हरिया -”तुम बाप बनने वाले हो दीनू |”

दीनू -”सच कह रहे हो हरिया |”

हरिया -”सच ही तो कह रहा हूँ तब ही तो फुलवा खाना लेकर खेत नहीं आयी |”

अब दीनू की सारी परेशानी दूर हो चुकी थी, वह खुश नजर आ रहा था |

शाम को हरिया और दीनू दोनों घर आते है ,दोनों मिलकर चारा काटते है और बैलो को चारा डाल देते है | पारो और फुलवा दोनों खाना बना रही थी, दीनू खाना खा कर अपने घर जाकर चारपाई पर लेट जाता है कुछ देर बाद फुलवा भी चली आती है वह कुछ शर्मा रही थी | दीनू उसके पास आता है |

दीनू -”क्यों फुलवा, भौजी जो बात कह रही थी किया वह ठीक है |”

फुलवा का मुह शर्म के मारे लाल हो जाती है | वह सिर नीचा करके हाँ में हिला देती है | दीनू की खुशी का ठिकाना नहीं रहता , वह फुलवा को अपनी बांहों में उठा लेता है | दीनू खुश था ,फुलवा भी खुश थी वे दोनों एक ही चारपाई पर लेटे देर रात तक बाते करते रहते है और सो जाते है |

वैशाख का महीना आ गया था | गेहूँ पकने लगे थे | हरिया और दीनू भी खेत काटने के लिए तैयार हो जाते है | दीनू गॉंव के लुहार के पास हसिया ले जाता है और उसकी नई धार निकलवा लाता है |

सभी खेतो में कटाई लग चुकी थी | हरिया और दीनू भी अगले दिन सुबह को खेत पहुँचते है और खेत की कटाई शुरू कर देते है | पारो दोपहर का भोजन खेत ले जाती है और वह भी खेत की कटाई में जुट जाती है | फुलवा की तबीयत ठीक न होने के कारण वह घर पर ही आराम कर रही थी |छोटा बालक भारत भी फुलवा के पास ही था |

शाम तक आधा खेत कट गया तो तीनों घर को आते है और दूसरे दिन सुबह होते ही फिर खेत को जाते है और शाम तक सारा खेत काट डालते है | उसके बाद दीनू का खेत भी कट जाता है |

अगले दिन दीनू थ्रेशर वाले के पास जाता है और कटाई तय करके आता है |गांव भर में केवल प्रधान जी के पास ही थ्रेशर और ट्रैक्टर था जिससे वह मन चाहे दाम पर कटाई करता था |

चार दिन बाद थ्रेशर आता है |दीनू थ्रेशर में गेहू की पुलिया डालने लगता है और हरिया खेत में फैली पुलिया इकट्ठी करके दीनू के पास डालने लगता है |

दोपहर की लोहा पिघला देने वाली धूप थी | जिसमे हरिया अपना फटा अँगोछा सिर पर रखे काम कर रहा था | प्रधानजी का लड़का दूर आम की छाव में किसी नबाब की तरह से बैठा घडे से ठंडा पानी पी रहा था |

शाम तक सारा गेंहू कट जाता है तो दीनू बर्तन उठा कर अनाज को मापता है ,लगभग तीस मन गेहूँ हुये थे |

दीनू (प्रधान जी के लड़के से )-”तुम्हारा कितना हुआ भैया”

लड़का -”छ: मन हुआ |”

दीनू -”नही भैया यह तो पहली साल से दौगुना है |”

लड़का (झुँझलाते हुये )-”देख दीनू मैंने तुझे पहले ही कहा था ,तेल के दाम दो गुने हो चुके है |”

दीनू ने लड़के की कड़क आवाज सुनी तो वह चुपचाप अनाज माप देता है |लड़का अनाज ट्रैक्टर पर रखकर थ्रेशर लेकर अगले खेत चला जाता है |

कुछ देर बाद लुहार,बढाई,धोबी व नाई आते है | वे सभी आपना फसलाना लेने आते है | दीनू उन्हे भी अनाज माप देता हैं l

दीनू और हरिया के पास अब लगभग बीस मन गेंहू रहे थे फसल का तिहाई भाग खेत से ही जा चुका था | वे दोनों आनाज के बौरो को बैलगाडी में में लड़ते है और गाँव की तरफ चल देते है |

वे घर पंहुचते है तो काफी रात हो चुकी थी | दोनों मिलकर आनाज को अंदर रखते है और खाना खाकर सो जाते है | सुबह होती हे तो दीनू और हरिया बैलगाडी लेकर फ़िर खेत की तरफ चल देते है | आज उन्हें दिन भर में सारा भूसा घर में लाकर डालना था |
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Monday 10 November, 2008

दीनू हुक़्क़े से चिलम उठा कर चिलम भरने चला जाता है |


पारो छप्पर में बैठी चूल्हे पर खाना बना रही थी |छोटा बालक भारत बहार नीम के पेड़ पर पड़े झूले में सो रहा था | हरिया और दीनू खेत में ऊख छिलने गए थे |फुलवा दीनू का खाना लेकर आती है |

फुलवा -”लाओ भाऊजी ,भारत के बापू का खाना दे दो खेत में दे आती हूँ |”

पारो -”ठहर जा फुलवा ,दो रोटी सेंक दू , ले जाना |”

पारो रोटी पका रही थी की अचानक ही फुलवा को उल्टिया सी आने लगती और चक्कर सा आ जाता है | पारो उसे दौड़ कर पकड़ती है और चारपाई पर लिटा देती है |

फुलवा (लेटे हुए )-”पता नहीं भाऊजी कई दिनों से ऐसा ही हो रहा है ,शरीर में भी कमजोरी सी महसूस हो रही है |”

पारो उसकी बीमारी को समझ चुकी थी ,वह मुस्कराते हुए कहती है -”अरे तुझे परेशान नहीं खुश होना चाहिए |”

फुलवा चौककर -”क्यों भाऊजी ?”

पारो -”अरे तुझे पता नहीं ,तुम माँ बनने वाली हो |”

फुलवा -” सच भाऊजी |”

पारो -”और नहीं तो किया झूठ थोड़ा ही बोल रही हूँ |”

फुलवा की खुशी का ठिकाना नहीं रहता ,वह चारपाई से उठना चाहती थी लेकिन पारो ने उसे मना कर दिया |

पारो -”तू आराम कर तब तक मैं खेत में खाना दे आती हूँ |”

पारो खाना लेकर खेत चली जाती है |फुलवा चारपाई पर पड़ी सोच में डूबी हुई थी | उसके मन में अनोखे ख्याल आ रहे थे ,उसकी खुसी का कोई ठिकाना नही रहता | उसे ऐसा लगा मनो संसार की सारी खुशिया उसकी गोद में आ गई हो , वह चारपाई से उठती है और झूले के पास जाकर नन्हे बालक भारत को अपनी बाँहो में उठा लेती है और वह उसका मुंह बार-बार चूमती है |

पारो टेढी -मेढी पगडंडी यो से होकर खेत चली जाती है वह खाना रख देती है | दीनू आता है |

दीनू -”क्यों भाऊजी , फुलवा खाना लेकर क्यों नही आई ? आपको अनायास ही परेशान किया |”

पारो -”कुछ नही थोड़े दिनों बाद ठीक हो जायेगी |”

हरिया भी आ जाता है | दोनों हाथ धोकर खाना खाने लगते है | दीनू का चित्त एक जगह न था | पारो ने उसे ठीक वजह न बताई थी |

दोनों खाना खा लेते है दीनू हुक़्क़े से चिलम उठा कर चिलम भरने चला जाता है | पारो बर्तन इकठ्ठा करती है और हरिया को पारो की तबीयत के बारे में बताती है और वह बर्तन सिर पर रखकर घर की तरफ चल देती है |
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Monday 6 October, 2008

सुखिया किचन के बहार जमीन पर बैठकर खाना खा रही थी |

रूबिया-”क्योंजी कोई अच्छा सा नाम बताओ ना , जो हम अपने राजा बेटे का रख सके “|

चढ्ढा साहब -”हाँ नाम तो बहुत से है | परन्तु नाम ऐसा होना चाहिए जो सब से जुदा हो “|

(कुछ देर दोनों चुप रहते है)

रूबिया -”मे बताऊं “|

चढ्ढा साहब -”हाँ बताओं “|

रूबिया -”चंदन कैसा रहेगा “|

चढ्ढा साहब -”अच्छा नाम है |चंदन ही रख लेते है “|

कुछ देर बाद -

रूबिया -”क्यों जी सो गए हो किया “?

चढ्ढा साहब -”नहीं तो “|

“में कह रही थी कि हरिया और पारो तो चले गए है |सारा दिन कम करते-करते थक जाती हूँ और ब्यूटी-पार्लर कि कमाई भी नही होती, कम से कम एक आया तो जरूर ही घर मे चाहिए जो काम -धन्दा और हमारे बाद हमारे बच्चों कि देखभाल कर सके | ऑफिस के किसी विश्वास वाले व्यक्ति कि पत्नी या बहन हो तो वह अच्छी रहेगी |”

चढ्ढा साहब -”ठीक है कल देखूँगा |”

अगले दिन शाम को जब चढ्ढा साहब ऑफिस से लोटे तो उनके साथ एक तीस - बत्तीस साल कि एक सावली सी युवती थी | यह चढ्ढा साहब के ऑफिस में काम करने वाले नौकर रामू कि पत्नी थी | उसका पाँच महीने का एक बालक भी था | वह चढ्ढा साहब के साथ ऊपर आती है |चढ्ढा साहब रूबिया को आवाज लगते है | रूबिया किचन में थी वह आती है |

चढ्ढा साहब -”सुखिया, ये तुम्हारी मेम-साहब है |”

सुखिया -”नमस्ते मेमसाहब |”

रूबिया -”नमस्ते |”

चढ्ढा साहब -”रूबिया ये ऑफिस में काम करने वाले मेरे नौकर रामू कि पत्नी है | यही नजदीक ही इसका मकान है | यह हमारे चंदन को अच्छी तरह से रखेगी |”

रूबिया और सुखिया दोनों किचन में चली जाती है |रूबिया खाना बनाने लगती है |

रूबिया -”सुखिया “|

-”जी मेम साहब “|

-”सिंक में हाथ धो कर साहब को खाना परोस दो “|

सुखिया हाथ धो कर मेज़ पर खाना परोस देती है | रूबिया ,सुखिया के लिए भी खाना डाल देती है | सुखिया किचन के बहार जमीन पर बैठकर खाना खा रही थी तो चढ्ढा साहब और रूबिया मेज पर बैठकर खाना खा रहे थे |

कुछ देर बाद सुखिया आती है वह बर्तन उठा कर ले जाती है | वह उन्हें साफ़ करती है | बर्तन साफ़ करने के बाद , सुखिया -”अच्छा तो मेमसाहब में जाऊं |”

रूबिया -”यहाँ आओ सुखिया |” सुखिया आती है |

रूबिया -”देखो सुखिया ये हमारा बच्चा है |इसका नाम चंदन है |दिन में हमारे बाद तुम्हें इसकी और पूरे घर कि देखभाल करनी है |”

सुखिया बच्चे को देखते हुए -”बड़ा प्यारा बच्चा है ,मेमसाहब आप फ़िक्र न करे में अपने बच्चे से भी ज्यादा आपके बच्चे कि देखभाल करूंगी | अच्छा मेम-साहब नमस्ते |”

-”नमस्ते ” (सुखिया चली जाती है )

अगले दिन सुखिया सुबह को ही आती है | चढ्ढा साहब और रूबिया अपने-अपने काम पर चले जाते है | सुखिया बच्चे को पलने मे लिटा देती है और घर का काम करने लगती है | दोपहर को रूबिया का फोन आता है वह चंदन के बारे मे पूछ रही थी | कुछ देर बाद चंदन जाग जाता है | वह रोने लगता है | सुखिया उसे उठा लेती है और स्तन पान कराती है |

इसके बाद रूबिया रोज कुछ जल्दी आ जाती थी और थोड़ा बहुत समय चंदन को देती थी |इसी तरह समय गुजर रहा था |

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Saturday 27 September, 2008

चढ्ढा साहब सिगरेट सुलगाये पलंग पर तकिया के सहारे लेटे दम लगा रहे थे |


दीनू आँगन में चारपाई पर बैठा हुक्का गुडगुडा रहा था, हरिया को देखते ही -”आओ हरिया आओ ,क्या हाल है ?”
-”ठीक है भैया “-हरिया ने इतना कहा और वह चारपाई पर बैठ जाता है

-"कहो कैसे आना हुआ|"

हरिया -"भैया तुम तो जानते ही हो जब गाँव में नहीं थे तो ठीक था ,लेकिन जब अब आ गए है तो खाने के लिए अनाज आदि भी चाहेगा,सोचता हूँ नहर के पास में जो जमीन वर्षो से खली पड़ी है मे उस में अनाज बो दूँ ,लेकिन हल बैल कौन देगा|"

दीनू -”कैसी बात करते हो हरिया, भला मेरे बैल किस दिन काम आवेंगे | तू परेशान न हो , जब हम लोग ही एक दूसरे की सहायता नहीं करेंगे तो कौन करेगा ,कल सुबह ही दोनों खेत पर चलेंगे और खेत की जुताई करेंगे |"

हरिया -”मे तेरा अहसान कभी नहीं भूलूँगा दीनू |"

दीनू -”क्यों शर्मिंदा कर रहे हो,मे किसी पर अहसान नही कर रहा,बुरे दिनों मे एक दुसरे के काम आना अहसान नहीं बल्कि अपना फर्ज है |"

अगले दिन सुबह दीनू बैल और हल लेकर खेत की तरफ चल देता है | हरिया उसके पीछे कंधे पर फावड़ा रखे और हाथ में हुक्का लिए चल रहा था | दोनों खेत में पहुँच जाते है | वर्षो से खाली पड़ी जमीन काफी बंजर हो गई थी | साडी जमीन में दूब-घास आदि उग आए थे,कही-कही झाडियो के पेड़ भी उग आये थे | हरिया खेत में पहुँचता हें तो धरती माँ को प्रणाम करता है | वह माचिस से आग सुलगा देता है |दीनू हल चलाने लगता है | हरिया फावड़े से झाडिया आदि साफ़ करने लगता है | दोपहर को दीनू की पत्नी फुलवा खाना लेकर आती है |दोनों एक साथ बैठ कर खाना खाते है और फिर बैठ कर हुक्का गुड़गुड़ाते है | शाम तक वे दोनों पूरे खेत को साफ़ कर देते है | अगले दिन दीनू बीज लाकर खेत में बुवाई करता है |अब वे एक दूसरे का सहारा बन गए थे और साथ-साथ खेती करने लगे थे |

*******

लगभग दो महीने बीत जाते है | रूबिया के बालक खोने का रंज दूसरे बालक ने भूला दिया था | वह अपने एक बालक के साथ खुश थी लेकिन घर में पड़े-पड़े वह बंधन सा महसूस करने लगी थी ,काफी दिनों से उसके ब्यूटी-पार्लर का काम भी अच्छा नहीं चल रहा था |

शाम के आठ बजने को जा रहे थे | वह बालक को पलने में लिटा देती है और किचन में जाकर खाना बनने लगती है | कुछ देर के बाद गाड़ी आकर रुकती है | चढ्ढा साहब दफ्तर से आ गए थे ,उनके हाथ में दो बड़े थैले थे जिनमे घर का कुछ सामान और सब्जिया थी, जिन्हें वो लाकर किचन में रख देते है और हाथ पैर धोने के लिए बाथरूम चले जाते है |रूबिया मेज़ पर खाना परोस देती है | दोनों बैठ कर खाना खाते है | लगभग रात के ग्यारह बज चुके थे , खाना खाकर वो अपने बेडरूम में चले जाते है |

चढ्ढा साहब सिगरेट सुलगाये पलंग पर तकिया के सहारे लेटे दम लगा रहे थे | रूबिया भी उनके सीने पर हाथ रखे उनकी बगल में लेती हुई थी |

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Saturday 20 September, 2008

“हमारा बच्चा “-रोती हुई रूबिया ने पालने की तरफ़ हाथ करते हुए कहा |


अचानक ही पारो हरिया के कंधे को हिलती है, “किस सोच में डूब गए हो , गाँव का स्टेशन आने वाला है”| हरिया को जैसे किसी ने कच्ची नींद से जगा दिया हो ,वह अपनी आंखें पोंछता है |

कुछ देर बाद गाड़ी स्टेशन पर रुकती है | नारायणपुर का स्टेशन आ गया था | हरिया गठरी को सिर पर उठता है और नीचे उतरता है | रेलगाड़ी चली जाती है | स्टेशन पर हरिया और पारो के सिवाय और कोई न था | हरिया आसमान की तरफ़ देखता है | चाँद अपनी चांदनी बिखेर रहा था | पूरब दिशा में भोर का तारा भी दिखाई दे रहा था | लगभग चार बजने को जा रहे थे , हरिया को कुछ ठण्ड महसूस होने लगी थी इसलिए वह गठरी से चद्दर निकलता है और उसे ओढ़कर गठरी सिर पर उठाकर चल देता है | पारो भी पीछे-पीछे चलती है वह एक टेढी मेढी पग डण्डी पर चलते है जो गाँव की तरफ़ जाती थी | रास्ते में उन्हें कही बाजरे के कटे खाली खेत दिखाई दे रहे थे तो कही ज्वार के खाली खेत | हरिया एक डंडा हाथ में लिए हुए था | थोड़ी देर में वह आपने आँगन में पहुँचता+ है | इस समय आँगन में लगा नीम का पेड़ काफी बड़ा हो गया था , एक कोने में पक्का कोठा था , जिसे उसके पिता ने बनाया था | उसके बाहर की तरफ़ एक छप्पर था जो अब टूटकर जमीन पर आ चूका था |

हरिया किवाड़ खोलता है , अन्दर एक झिंगला चारपाई पड़ी थी वह गठरी को उस पर रख देता है और गठरी से मोम बत्ती निकल कर माचिस जलता है , गठरी कुछ कपड़े निकल कर वह चारपाई पर बिछा देता है , पारो और छोटा बच्चा चारपाई पर लेट कर सो जाते है तो हरिया बाहर से कुछ छप्पर का टूटा फूस लाकर नीचे जमीन पर डालता है और उस पर एक चद्दर बछा कर वह भी सो जाता है | थोड़ी देर बाद ही बाहर बारिश आ गई थी |


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सुबह होती है तो सूरज काफी ऊपर चढ़ चूका था | रूबिया की आँखें खुलती है तो वह जँभाई लेते हुए बिस्तर से उठती है और अपने खुले बालों का जूड़ा बनाते हुए बच्चों के पलने के पास जाती है ,लेकिन पलने लेते एक बच्चे को देखकर उसका शरीर काँप जाता है | वह जोर से चीखती है और दौड़ कर सीढियो से नीचे उतरती है | इस समय उसका दिल जोर-जोर से धड़क रहा था , ठण्ड होने के बावजूद भी उसके शरीर से पसीना छूट रहा था | वह दौड़ कर हरिया और पारो के कमरे में जाती है लेकिन वहाँ दो नंगी चारपाई के अलावा कुछ नहीं था | रूबिया का मनो जी ही निकल गया हो , वह दौड़ कर फिर अपने कमरे में आती है और चढ्ढा साहब को जगती है | रूबिया चढ्ढा साहब से लिपट कर जोर-जोर से रोने लगती है | चढ्ढा साहब घबरा जाते है

-”क्या हुआ, क्यों रो रही हो”

-”हमारा बच्चा ” - रोती हुई रूबिया ने पलने की तरफ़ हाथ करते हुए कहा

-”क्या हुआ हमारे बच्चो को”

-”हमारे एक बच्चे को हरिया और पारो उठा ले गए है”

यह सुनते ही चढ्ढा साहब के शरीर से पसीना छूट जाता है | वह दौड़ कर पालने के पास जाते है लेकिन पालने में एक बच्चे को देखकर वो भी घबरा जाते है | उन्हें लगा मानों उनके पैरो तले की जमीन ही खिसक गई हो | वों दौड़ कर बाल कनी में आते है ओर हरिया ओर पारो को आवाज लगते है ,लेकिन रूबिया की तरह से वों भी निरुत्तर हो कर लोट जाते है |

रूबिया का रोते हुए बूरा हाल हुआ जा रहा था | चढ्ढा साहब रूबिया को अपने सीने से लगा लेते है उनकी आँखें भी भर आई थी |

-”रो मत रूबिया हम अपने बच्चे का पता जरूर लगा लेंगे, में अभी पुलिस को खबर करता हूँ “

चढ्ढा साहब फोन का रिसीवर उठाते हैं ओर पुलिस स्टेशन में सूचना देते है |

कुछ देर बाद पुलिस की गाड़ी आकर रुकती है ओर अन्दर से दो सिपाई ओर एक इंस्पेक्टर उतरते है वों लोग हरिया ओर पारो के कमरे का पूरा जायजा लेते है लेकिन कोई सबूत नहीं मिलता |

इंस्पेक्टर साहब -”चढ्ढा साहब वों दोनों आप लोगों के यह कितने दिनों से रह रहे थे “

“लगभग चौदह-पन्द्रह साल हो गए होंगे ,मेरे पिताजी ने ही उन्हें रखा था “- कहते हुए चढ्ढा साहब की आवाज भरी हो गई थी

-”आपके पास उनका कोई पता है वों लोग कहा के रहने वाले थे “?

-”जी नहीं “

-” क्या वों कभी अपने घर भी जाते थे “?

-”जी कभी नहीं गए “

-”इससे पहले कोई घटना उन्होंने की हो “

-”नहीं इंस्पेक्टर साहब , ऐसा कभी नहीं हुआ”

-”ठीक है हम शहर में अपने आदमी यो से उनका पता लगाने की कोशिश करते है जैसी भी सूचना मिलेंगी हम आप को इतला कर देंगे “

दस -बारह दिन बीत जाते है लेकिन बच्चे का कोई पता नहीं चलता |


*******


हरिया ( पारो से ) -”में सोचता हूँ , जमीन सुखी जा रही है क्यों न जोत कर गेहूँ की बुवाई कर दू “

-” हां कर दो खाने के लिए अनाज तो चाहिए ही “

-”लेकिन बैल,हल,बीज कहा से आएगा ” |

पारो -”दीनू भैया से ले लो जब आ जाएगा तो चूका देंगे “

हरिया -”ठीक है , देखता हूँ” | वह उठ कर दीनू के घर की तरफ चल देता है |
उपन्यास (भारत /India) से-(लेखक-विजय-राज चौहान)
पूरा उपन्याश पढने के लिए यहाँ चटका लगाये |

Sunday 14 September, 2008

हिन्दी दिवस पर विशेष (अँग्रेज़ी स्कूलों में हिन्दी की पुस्तक के आंसू )


राष्ट्रभाषा का आशियाना , सदियों से भारत का मस्तक हूँ ………|
मैं हिन्दी की पुस्तक हूँ .....................................................| |

सैकड़ों सालों से नन्हे हाथों ने मुझे अपनाया ..........................|
माँ-बाप ,भाई-बहन और ऋषियों ने भी मुझे गले लगाया ……...| |
लेकिन आज प्यार की एक बूँद को तरसती हूँ ........................| |
मैं हिन्दी की पुस्तक हूँ ...................................................|

विदेशी आए शोतान लाये, घर छीना, गाँव छीना .....................|
और अब देश की मिट्टी की खुशबू को तरसती हूँ .................| |
मैं हिन्दी की पुस्तक हूँ ..................................................| |

अपने आज हुए पराये कुछ आज तो कुछ कल चले जायेंगे ....|
शायद अब लौट कर नहीं आयेंगे .....................................| |
मैं घर के कोने में पड़ी अपनों की एक झलक को तरसती हूँ...|
मैं हिन्दी की पुस्तक हूँ .................................................|

राष्ट्रभाषा का आशियाना , सदियों से भारत का मस्तक हूँ |
मैं हिन्दी की पुस्तक हूँ ...............................................| |

विजय-राज चौहान (गजब)

Saturday 30 August, 2008

तुझे तो नरक में भी जगह नहीं मिलेगी…….

………पारो की आँखों में आंसू थे,वह कुछ नहीं बोलती और हरिया की चारपाई से उठ कर अपनी चारपाई पर जाकर लेट जाती है | कुछ देर में वह सो जाती है |

हरिया भी अपनी चारपाई पर लेट जाता है |लेकिन उसकी आँखों में नींद न थी |वह सोने की कोशिश करता है लेकिन उसे नींद नहीं आती ,पारो ने ऐसी बात कही थी जिसने उसके मन में तूफान मचा दिया था |वह कभी इस करवट लेटता है तो कभी इस करवट | वह उठ कर बैठ जाता है |बण्डल से बीडी निकलता है और उसे सुलगा लेता है |वह एक अजीब कसम कस में फस गया था |उसके मन में अनेकों विचार आ रहे थे | वह सोच रहा था की जब कल को उसकी और पारो दोनों की उमर हो जायेगी तो कोंन उनका सहारा बनेगा | काफी देर सोचने के बाद वह फिर लेट जाता हे शायद वह किसी बड़े निर्णय पर पहुँच गया था | इसके बाद उसे नींद आ जाती है |

सुबह जब हरिया की आँखें खुली तो वह देखता हे कि सूरज का प्रकाश किवाड़ों कि झीरी से होकर अंडर आ रहा था |वह पारो कि चारपाई कि तरफ़ देखता है | पारो उठ कर जा चुकी थी , सूरज काफी ऊपर चढ़ चुका था | हरिया उठता है और कपड़े पहन कर आपनी दिनचर्या में व्यस्त हो जाता है |

लगभग तीन महीने गुजर जाते है दोनों बच्चे काफी स्वस्थ थे |चढ्ढा साहब ने साडी रिश्तेदारी में निमंत्रण भेज दिया था | उन्होंने शहर के सभी नमी ग्रामी हस्ति यो को पार्टी में निमंत्रित किया था और आज वह दिन आ गया था |

सुबह से ही घर में चहल - पहल थी | चढ्ढा साहब ने अनेकों प्रकार का खाना बनवाया था लेकिन मांसाहारी कुछ जायदा था | अब रूबिया की हालत भी अच्छी हो गई थी | वह टहलते हुए हर एक वास्तु को इस प्रकार चेक कर रही थी मनो कोई इजीनियर किसी फैक्टरी का जायजा ले रहा हो ,और भला चेक भी कियो न करे आज उनकी सहेली या और मित्र पार्टी में जो आने वाले थे |

गेट के बहार एक गाड़ी आकर रुकती है | गेट-कीपर गेट खोलता है | गाड़ी अंदर लान में रुकती है | उसके अंदर से एक पुरुष और एक औरत उतरती हे | औरत के हाथों में एक नवजात बच्ची थी जिसका जन्म पाँच महीने पहले हुवा था , यह औरत चढ्ढा साहब कि बहन मोहिनी थी | उनके साथ उनके पति भी थे |मोहिनी इंडिया एयर लाइंस में एयर होस्टिस थी | उनके पति बीमा कंपनी में मैनेजर थे | पैसा कमाने में ये लोग भी किसी से पीछे नहीं थे | घर में एक बूढी सास थी जो घर कि और छोटी बच्ची दोनों कि देखभाल करती थी |

शाम हो चुकी थी | चढ्ढा साहब का बँगला बिजली की रोशनी से जगमगा रहा था | दोस्त और समंधी पार्टी में आने शुरू हो गए थे | इस समय चढ्ढा साहब और उनकी बीबी रूबिया दौड़- दौड़ कर रिसीव कर रहे थे |दोनों बच्चों को पारो संभाले हुए थे | टंडन साहब भी अपन परिवार के साथ आ रहे थे | वो अपनों गोद में अपनी बेटी एश्वेर्या को उठाए हुए थे और दूसरे हाथ में बच्चों के लिए कुछ उपहार लिए हुए थे ,इस समय वों अपनी भरी पत्नी के साथ ऐसे लग रहे थे मनो कोई महावत किसी हथनी के साथ चल रहा हो | एश्वेर्या को वे लोग पारो के पास छोड़ देते हे | हरिया भी मेहमानों की खातिर में व्यस्त हो जाता है |

पार्टी इस समय खत्म होने वाली थी और सभी लोग खाना खा रहे थे | सभी खाना खाकर बच्चो को आशीर्वाद देते है और अपने घर लोटने लगते है |लगभग रात के ग्यारह बजने तक सभी लोग लोट जाते है |

चढ्डा साहब और रूबिया दोनों खुश थे लेकिन इस समय वो इतनी शराब पी चुके थे की उनके कदम लड़ खड़ा रहे थे |हरिया और पारो उन्हें पकड़ कर उनके अमर में छोड़ आते है | हरिया बच्चो को भी उनके पास सुला आता है लेकिन दरवाजा बंद नही करता |

पारो कमरे में आ चुकी थी | वह सुबह से कम करते थक गई थी इसलिए वों जल्दी सो जाती है | हरिया कमरे में आता है और सामान बंधने लगता है | वह अपने सारे सामान को बाँध लेता है और चारपाई पर बैठ कर बण्डल से बीड़ी निकल कर सुलगा लेता है |फिर वह पारो को जगाता है ,पारो जगती है |

पारो -”क्यो इतनी रात क्यो जगा दिया “

हरिया कापती आवाज से -”जाओ एक बच्चे क्यों ले आओ गाँव चलते है “|

पुत्र मोह ने हरिया को अंधा कर दिया था | पारो ने सुना तो खुश हो जाती है ,उसकी नींद भाग जाती है | वह चारपाई से उठती है और धीरे धीरे सीढियो से चढ़कर कमरे के अन्दर झाकती है | इस समय रूबिया चढ्ढा साहब के सीने पर सिर रखकर गहरी नींद में सो रही थी , चढ्ढा साहब भी गहरी नींद में सोये हुवे थे |

पारो कमरे में प्रवेश करती है ,उसका दिल जोर-जोर से धड़क रहा था वह कापते हाथों से छोटे बच्चे को उठा लेती है और नीचे आ जाती है | हरिया गठरी को उठा लेता हे और पारो को एक चद्दर ओढ़ने को देता हे | दोनों चुपके से बंगले के गेट से बहार निकलते है | सारा शहर इस समय नींद में सोया हुवाथा |

हरिया गठरी लेकर आगे चल रहा था और पारो उसके पीछे चल रही थी |रात के लगभग बारह बज चुके थे | वे स्टेशन पहुँचते है और गाँव के लिए गाड़ी में सवार हो जाते है |

हरिया गठरी को रखकर बैठ जाता है | पारो भी उसकी बगल में बैठ जाती है | हरिया गाड़ी से बहार देख रहा था और किसी गहरी सोच में डूबा हुवा था | वह उदास था ,लेकिन पारो बहुत खुश थी वह बच्चे को इस प्रकार चूम रही थ मनो कोई गाय अपने नवजात शिशु को चूम रही हो |

रेलगाड़ी पटरी पर दौड़ रही थी लेकिन हरिया अपने ही ख़्यालों में खोया हुवा था | उसे पन्द्रह साल पहले के वो दिन याद आ रहे थे जब गाँव में अकाल पड़ा था और वह पारो को लेकर शहर आया था | उसे याद आ रही थी वो पूस को रात जब वह अपनी नवविवाहिता पारो के साथ सड़क के किनारे पड़ा ठिठुर रहा था और चढ्ढा साहब के पिता उन्हें अपने घर ले गए थे | ये तुने अच्छा नही किया हरिया ,यह तो एक विश्वास घात किया किया हे तुने ,तुझे तो नरक में भी जगह नहीं मिलेगी ,भगवान तुझे कभी माफ नहीं करेगा-वह अपने आप को धिकारता है , उसकी आँखों में आंसू थे ,वह बहुत उदास हो गया था |
<<पीछे (विजय-राज चौहान के प्रकाशित उपन्यास "भारत /INDIA" से)

जारी है .....................

Sunday 24 August, 2008

“भगवान के घर देर है अंधेर नहीं ” |

…….थोडी देर के बाद श्रीमती टंडन रूबिया के कमरे में प्रवेश करती है |उनके साथ उनकी तीन साल की बेटी एश्वेर्य टंडन भी थी | आधुनिक जमाने का टंडन साहिबा पर कुछ जायदा ही असर था |उनके पति टंडन साहब की कागज व गत्ता बनाने की फैक्टरी थी, बिजनेस के फिल्ड में उनकी अच्छी पकड़ थी और वे भी चढ्ढा साहब की तरह से शहर के नमी रईसोमें गिने जाते थे | मिसिज टंडन का अधिकांश समय घर से बाहर ही गुजरता था | शहर में उन्हीं की तरह की कुछ रईस जादिया उनकी सहेली या थी जिनके पास जाकर वह सुबह से शाम तक ताश या जुए का खेल खेलती थी | वह टंडन साहब की दौलत को पानी की तरह से बहा रही थी |टंडन साहब ये जानते थे लेकिन उन्हें कुछ भी कहने की उनकी हिम्मत नहीं होती थी | टंडन साहब का बंगला भी चढ्ढा साहब के बंगले के पास था इसलिए दोनों एक दूसरे के दुःख-सुख में शरीक होते थे, और इसलिए टंडन साहिबा आज रूबिया की हालत का पता लेने आई थी |

टंडन साहिबा - “रूबिया अब तुम्हारी तबीयत कैसी है ” ?

रूबिया - ” अच्छी हूँ “

टंडन साहिबा -”सुना है तुमने क्रष्ण और बलराम दोनों को एक साथ भी बुला लिया है ” |

रूबिया (हँसते हुए )- “बुलाया कहा भगवान की जैसी मर्जी होती है वैसा ही होता है |वरना आठ साल हो गए थे ,घर में किसी बच्चे की किल्ल्कारी सुनने को कान तरस गए थे और अब आए भी तो दो एक साथ , किसी ने टीक ही कहा है ‘भगवान के घर देर है अंधेर नहीं ” |

टंडन साहिबा -”ठीक कहती हो , कहा है तुम्हारे लाल “?

रूबिया - ” वहां पलने में दोनों सो रहे है”

मिसिज टंडन पालने के पास जाती है और दोनों बच्चों को निहार ने लगती है |

-”सच रूबिया दोनों के नैन-नक्श एक जैसे है, इनमें बड़ा कोन सा है”

रूबिया -”वही जिसके हाथ में कला धागा बंधा है “

पारो कोफ़ि ले आती है | दोनों सहेलिया कोफ़ि की चुस्किया लेते हुए बातें कर रही थी और तीन साल की छोटी बच्ची एश्वेर्या पलने के पास खड़ी सोते हुए बच्चों को देख रही थी |

मिसिज टंडन - ” अच्छा तो रूबिया अब मै चलती हूँ शाम हो गई है “|

वह एश्वेर्या को आवाज लगाती है एश्वेर्या दोड़कर आती है और टंडन साहिबा की उंगली पकड़ कर साथ चल देती है |

पारो आती है और पलने मे बच्चों को देखकर बोली -”मेमसाहब बच्चे जाग गए है , आप उन्हें दूध पिला दीजिये तब तक मै खाना तैयार करती हूँ “

रूबिया- ” ठीक है तुम इन्हे मेरे पास ले आओ “

पारो बच्चो को उठा कर रूबिया के पास ले जाती है |रूबिया दोनों बच्चो को बारी-बारी से दूध पिलाती है |परो किचन में चली जाती है | हरिया जो बाजार सब्जी आदि सामान लेने गया था सामान लाकर किचन में रख देता है और बचे पैसे रूबिया को दे देता है |

रात के लगभग साढ़े दस बजे जा रहे थे चढ्ढा साहब की गाड़ी आकर रूकती है | चढ्ढा साहब गाड़ी से उतरते है और ऊपर रूबिया के कमरे में चले जाते है और हरिया को आवाज लगते है |

हरिया -”जी साहब “(हरिया किचन से दोड़ता हुआ आता है )

चढ्ढा साहब -”नीचे गाड़ी में कुछ दमन रखा है उसे उठा कर ऊपर ले आओ “

हरिया -”जी अच्छा “

हरिया नीचे जाता है और गाड़ी में रखे एक बड़े थैले की उठा कर ओपर कमरे में ले आता है |शायद थैले में बच्चो के कुछ गरम कपड़े और खिलौने थे |वह थैले को कमरे में रख आता है |

पारो आती है | “साहब खाना तैयार है “

चढ्ढा साहब -”ठीक है मेज पर लगा दो तब तक मै हाथ मुँह धो लेता हूँ “

पारो -”ठीक हे साहब “

पारो किचन में जाकर खाना डालने लगती है | हरिया खाने को मेज़ पर परोसा देता है | चढ्ढा साहब मेज़ पर बैठे खाना खा रहे थे तो रूबिया बेड़ पर बेटी खा रही थी | दोनों खाना खा लेते है तो हरिया बर्तन उठा ले जाता है |

पारो (हरिया से ) -”आप भी खाना खा लीजिए “

हरिया भी बैठ जाता है और खाना खाने लगता है |खाना खाखर हरिया नीचे अपने कमरे में चला जाता है | वह चारपाई पर कपड़े बिछा कर बैठ जाता है |वह जेब से बीड़ी का ब्लड निकलता है और उसे माचिस से जलाकर पीने लगता है |बीड़ी पीकर वह लेट जाता है तब तक पारो भी बर्तन साफ करके उसके पास कमरे में आ जाती है |वह अपनी चारपाई बिछा देती है और बैठ जाती है |

पारो -” सो गए हो किया ?”

हरिया -”नहीं अभी तो नहीं “

पारो हरिया के सिरहाना आकर बैठ जाती है और हाथो की उंगलियो से हरिया के बाल सहलाने लगती है | घर में खुशी का माहोल होने के बाद भी पारो उदास थी |

पारो-”किओजी , किया हमारे भाग्य में ओलाद का सुख नही हे किया “

हरिया -”ऐसा कियो सोचती हो पारो ,मेरा जी कहता हे एक दिन मम साहब की तरह से तुम्हारी भी गोद आवश्य भर जायेगी “|

पारो -”जिस पेड़ पर भरी बाहर में फल न आया हो तो बुढापे में किया फल देगा “|

पारो को आँखे भर आई थी उसका गला रूंध गया था |हरिया चुपचाप पड़ा रहता है | उसका मन भी दुखी था | कुछ देर बाद पारो बोलती है |

-”किओजी एक बात कहू तो बूरा तो नही मानोगे “

हरिया -” कहो तो सही बूरा कियो मानूंगा “

पारो - “कियो न हम साहब के एक बच्चे को लेकर आपने गाँव जा रहे ?”

हरिया के शरीर में सर से पांव तक एक बिजली सी दोड़ जाती हे | उसे लगा जैसे किसी ने उसके घाव में सुई चुभो दी हो |

वह बैठ जाता है पारो की तरफ़ मुँह करते हुए बोला -” ऐसा कहने से पहले तुम्हारी जीब कियो न कट गई ,तुम्हारी मति मरी गई हे किया ,जानती हो तुम किया कह रही हो ,जिस घर का पंद्रह साल से नामक खा रहे है उसी की थाली में छेद करने को कह रही हो तुम “

<<पीछे उपन्यास (भारत /India) से-(लेखक-विजय-राज चौहान)आगे >>

Sunday 17 August, 2008

भादों का महीना था, पूरे शहर में कृष्णा जन्माष्टमी होने की वजह से धूमधाम थी |

भादों का महीना था, पूरे शहर में कृष्णा जन्माष्टमी होने की वजह से धूमधाम थी | हलवइयो की दुकानें घेवर, पेड़ों व मिठ्हियो से भरी पड़ी थी , लोग इन्हें खरीद रहे थे और एक दूसरे को त्यौहार ही बधाई दे रहे थे |
लेकिन धनपत चढ्ढा के घर में कोई उमंग न थी | इस समय चढ्ढा साहब एक कमरे में सिगरेट के दम लगते टहल रहे थे , वे कुछ परेशां नजर आ रहे थे लेकिन परेशानी के साथ एक आत्मिक खुशी भी को रही थी ,किओकी शादी के आठ साल बाद आज उनके घर में एक नया मेहमान आने जा रहा था |
वैसे तो चढ्ढा साहब की उमर चालीस -पैंतालीस की थी किंतु ओलाद न होने की वजह से कुछ ज्यादा ही उमर के लगने लगे थे | इसके अलावा उनका कंप्यूटर सोफ्टवेर का काफी बड़ा कारोबार था जिसे वे बखूबी चला रहे थे | उनकी पत्नी रूबिया का भी एक बूटी पार्लर था जिसे वह भी सुबह से देर रत तक चलती थी | दोनों की अच्छी आमदनी थी, महीने में लाख -दो लाख की आमदनी तो हो ही जाती थी | इसके अलावा बँगला गाड़ी व अन्य सभी ऐश आराम के सभी सामान घर में सुसज्जित थे घर में दो नौकर हरिया और उसकी पत्नी पारो भी थे जो पिछले पंद्रह साल से इसी घर में रह रहे थे |
अचानक पारो दौड़ती हुई आती है |”साहब,मेम साहब की तबीयत ज्यादा ही ख़राब हो रही है” | चढ्ढा साहब तेजी के साथ रूबिया के कमरे में जाते है | रूबिया प्रसव पीड़ा के कारण बहुत परेशान थी | चढ्ढा साहब ने दोड़कर फोन का रिसीवर उठाया और लेडिज डाक्टर नीतू सिंह का नम्बर डायल कर दिया | फोन उठाते ही चढ्ढा साहब बोले -”हेलो डाक्टर साहब में धनपत चढ्ढा बोल रहा हूँ ” | उधर से एक ओरत की आवाज आती है -”हेलो चढ्ढा साहब कैसे हो “|
“जी मै ठीक हूँ लेकिन मेरी पत्नी की तबीयत काफी ख़राब है “| “क्या हुआ उन्हें ” | “जी डिलेवरी केस हे आप जल्दी से एक एम्बुलेंस भेज दीजिए “, “अच्छा अभी भेजती हूँ “|
चढ्ढा साहब ने फोन रख दिया और रूबिया के पास चले गए | पारो रूबिया के सिर को सहला रही थी और रह रहकर उस्केदिल को सांत्वना दे रही थी |
थोडी देर के बाद लोन में एक गाड़ी आकर रूकती है | दो आदमी आते हे और रूबिया को उठाकर कार के अन्दर लिटा देते है |
पारो और चढ्ढा साहब भी गाड़ी में बैठ जाते है | घर पर हरिया रह जाता है | थोडी देर बाद गाड़ी अस्पताल पहुच जाती है | दोनों व्यक्ति उतरते हे और रूबिया को उठा कर आपरेशन कक्ष में ले जाते है |
डाक्टर नीतू सिंह आती हे उनके साथ दो नर्स ओर थी, वे ओपरेशन कक्ष में चली जाती है |पारो ओर चढ्ढा साहब बहार बैंच पर बैठ जाते हे | वे आपरेशन कक्ष के बहार लगे लाल बल्ब को बार-बार देख रहे थे |रह रहकर उनकी निगाह दीवार पर लगी घड़ी पर भी जा रही थी जी इस समय रात के ग्यारह बजा रही थी |
आख़िर एक घंटे बाद इंतजार की घड़िया समाप्त होती है और बारह बज कर कुछ ही सेकंड हुए थे कि ओपरेशन कक्ष के बहार लगा लाल बल्ब बूझ जाता है |
अन्दर से डाक्टर नीतू सिंह आती है , उनके चहरे पर मुस्कुराहट थी -”बधाई हो चढ्ढा साहब, आपके घर क्रष्ण और बलराम दोनों ने जन्म लिया है ” |
चढ्ढा साहब चोककर - ” क्या मतलब “|
“मतलब यह हे कि आप दो बेटो के बाप बन गए हो ” |
चढ्ढा साहब खुशी के मरे उछल पड़ते है | पारो का मन भी खुशी के मरे प्रफुलित हो उठता हे |
-”लेकिन चढ्ढा साहब ” |
-”लेकिन क्या डॉक्टर ” |
-”मुझे बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि आप कि पत्नी आगे माँ नही बन सकती “-चढ्डा साहब को लगा कि मनो किसी ने उनके सिर पर तोड़ा मर दिया हो |
-”दो बच्चे होने कि वजह से उनकी फोलिकल टूब ख़राब हो गई हे इसलिए वों आगे माँ नही बन सकती “|
इतना कह कर डॉक्टर चली जाती है |
-”डाक्टर “- पीछे से चढ्ढा साहब ने पुकारा |
-”क्या मै अभी रूबिया को देख सकता हूँ “|
डाक्टर -” नही अभी तो वों आराम कर रही है , और उन्हें ये बात भी न बताना,ओर बच्चो के पास पारो को भेज दो “|
-”जी अच्छा “|
चढ्ढा साहब इस समय काफी परेशान थे लेकिन साथ ही उन्हें एक आत्मिक खुशी भी हो रही थी |वे सोच रहे थे कि आख़िर दो बच्चों से ज्यादा बच्चे पैदा करके क्या करना है |
पाँचवें दिन रूबिया कि अस्पताल से छुट्टी हो जय है | घर पहुँचते ही एक बच्चे को हरिया उठा लेता है तो दुसरे को पारो |वे बच्चों को इस तरह पियर कर रहे थे कि मनो वों उनकी अपनी औलाद हो |
पूरे घर में खुशी का माहोल था |आठ साल के बाद आज ही तो वो दिन आया था कि घर में किसी बच्चे के रोने कि आवाज सुने दी हो | रूबिया बेड़ पर लेती हुई थी |वह बच्चों को देखकर इतनी खुश थी कि मनो साडी दुनिया कि खुशी उनके घर में आ गई हो ,वह कभी एक बच्चे का चुम्बन लेती तो कभी दुसरे का |
पारो और हरिया भी पास खड़े थे लेकिन पारो कुछ उदास नजर आ रही थी | हरिया उसकी उदासी का कारण जनता था |वो जनता था कि पारो उस बंजर पेड़ कि तरह से हे जिसकी डाल पर पिछले पन्द्र साल से कोई फल नहीं आया था | अचानक ही चढ्ढा साहब कमरे में प्रवेश करते है |
-”हरिया”
-”जी साहब “
-”सभी लोगो को फोन कर दो कि हम परसों बच्चों के जन्म कि खुशी में पार्टी दे रहे है “|
हरिया (कुछ रुककर ) -”लेकिन साहब एक बात कहूं अगर आप मानो तो “|
-”हाँ कियो नहीं कहो तो सही “|
हरिया -”साहब मेरी मनो तो पहले मेमसाहब को आच्ची हो जाने दो”|
चढ्ढा साहब -”कियो रूबिया तुम्हारा क्या कहना है “|
-”जी हरिया ठीक ही तो कह रहा है “|
चढ्ढा साहब -”ठीक है जैसी तुम्हारी इच्छा “|
इतना कह कर चढ्ढा साहब दफ्तर चले जाते है |

- उपन्यास (भारत /India) से-(लेखक-विजय-राज चौहान)आगे >>

Sunday 10 August, 2008

१५ अगस्त पर विशेषः(हिन्दी के विरोध का कोई भी आन्दोलन राष्ट्र कि प्रगति में बाधक है |)


मित्रों आपके सामने अपने प्रकाशित उपन्यास "भारत/INDIA" से पेज १५६-१५८ तक के कुछ अंश जो मुख्य पात्र भारत द्वारा गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर स्कूल समारोह में कहे जाते है प्रस्तुत कर रहा हूँ | अपनी प्रतिक्रियाँ दे ...........|
भारत बोला -
"आदरणीय गुरु जनों ,उपस्थित अतिथि यो और मित्रों , मेरे नाम से तो आप भली भांति परिचित है ही ये मेरा सौभाग्य है की आज मुझे फिर एक बार आप लोगों के सामने आपने विचार प्रकट करने का मौका मिल गया ,और परमेश्वर की किरपा से आज का दिन वैसे भी इतना पवित्र है की आज भारत का हर नागरिक खुशी मन रहा है और आभार स्वरूप श्रधान्जली दे रहा है उन महापुरुषों और शहीदों को जिन्होंने अपने प्राणों की बाजी लगाकर हमें ये आजादी की खुली हवा प्रदान की | लेकिन में पूछना चाहता हूँ आज के समाज के इन सभी लोगों से जो आजादी के जश्न में पागल हुए जा रहे है ,कि अरे ओ लोगों किया वास्तव में हमने उस आजादी को पा लिया है जिसका सपना हमारे उन महापुरुषों और शहीदों ने देखा था ,क्या हमने उस भारत का निर्माण कर लिया है जिस प्रकार के भारत का सपना उन लोगों ने देखा था ? यदि हम थोड़े से आत्मिक और गंभीर होकर सोचे तो हम पाएंगे कि नहीं ,हमने उस प्रकार के भारत का निर्माण नहीं किया जिस प्रकार के भारत का सपना हमारे उन शहीदों ने देखा था | क्योंकि उन लोगों ने सपना देखा था एक ऐसे भारत का जिसमे भूख न हो , जिसमे गरीबी न हो | जिसमे अन्याय न हो ,जिसमे अत्याचार न हो |
लेकिन आज ये सारे सामाजिक दोष इस देश के सिर चढ़कर बोल रहे है हमने इन्हें समाप्त नहीं किया ......................|
खैर छोडिये इस विषय को में नहीं बताना चाहता कि इन सब सामाजिक दोष के न दूर होने में किस का दोष है और किस का नहीं , क्योंकि में और आप दोनों अच्छी तरह जानते हे कि दोष क्यों दूर नहीं हो पाये और कौन इसके लिए अपराधी है |
आज में जिस विषय पर में अपने विचार प्रकट करने जा रहा हूँ वों इस देश कि आत्मा का है जो एक बहुत ही महत्वपूर्ण और दुर्भाग्य का विषय है |
इस देश के संविधान ने आज ही के दिन इस देश कि आत्मा अर्थात "हिन्दी" से एक वादा किया था और वह वादा था कि "संविधान के अनुसार २६ जनवरी १९६५ से भारतीय संघ कि राजभाषा देव नागरी लिपि में हिन्दी हो गई है और सरकारी कामकाज के लिए हिन्दी अंतराष्टीय अंकों का प्रयोग होगा |"
लेकिन ये वादा आज तक पूरा नहीं हो पाया और हिन्दी अपने इस अधिकार के लिए आज तक संविधान के सामने अपने हाथ फैला ये आंसू बहा रही है | आख़िर इसका किया कारण है किया वास्तव में हिन्दी इतनी बुरी चीज है कि हम उसे अपनाना नहीं चाहते ?
नहीं वह इतनी बुरी चीज नहीं है | वह इस दुनिया कि सबसे अधिक बोली जाने वाली तीसरे नम्बर कि भाषा है और इसी कि महत्ता को भारत के अनेक महापुरुषों ने भी स्वीकार किया है इसकी इस महत्ता को देखकर ही एक ऐसे व्यक्ति "अमीर खुसरो" जिसकी मूल भाषा अरबी ,फारसी और उर्दू थी उसने कहा था -
"मैं हिन्दुस्तान कि तूती हूँ ,यदि तुम वास्तव में मुझे जानना चाहते हो हिन्दवी(हिन्दी) में पूछो में तुम्हें अनुपम बातें बता सकता हूँ "
इसके अलावा हिन्दी का महत्व समझते हुए ही उर्दू के एक शायर मुहम्मद इकबाल ने बड़े गर्व से कहा था कि -
"हिन्दी है हम वतन है हिन्दोंस्ता हमारा |"
हिन्दी हमारे भारतीय होने कि पहचान है और इसी के द्वारा ही भारत के हर नागरिक को भारतीयता कि माला में पिरोया जा सकता है | और हिन्दी के इसी महत्व को जान कर भारत के एक युगपुरूष महर्षि दया-नंद सरस्वती जिनकी मूल भाषा गुजराती थी, ने कहा था -
"हिन्दी के द्वारा ही भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है "और उसी महर्षि की आवाज में आवाज मिली थी उन्हीं की मूल भाषा रखने वाले एक लौह पुरुष सरदार वल्बभाई पटेल ने और आजादी के बाद कहा था -
"हिन्दी अब सारे राष्ट्र की भाषा बन गई है इसके अध्ययन एवं इसे सर्वोतम बनाने में हमें गर्व होना चाहिए |"
भारत ने इतना कहा और फिर अक्षणिक सुस्ताया और फिर बोला -
"मैं आप लोगों को बताना चाहता हूँ कि,क्योंकि भारत की मिट्टी के कण-कण में परमेश्वर निवास करता है इसलिए हिन्दी परमेश्वर की भाषा है और इसी बात को स्वीकार किया था उन गुरुदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर ने जिनकी मूल भाषा बांग्ला थी | उन्होंने कहा था कि -
"यदि हम प्रत्येक भारतीय नैसर्गिक अधिकारों के सिद्धांत को स्वीकार करते है तो हमें राष्ट्र भाषा के रूप में उस भाषा को स्वीकार करना चाहिए जो देश में सबसे बड़े भूभाग में बोली जाती है और वों भाषा हिन्दी है |"
और गुरुदेव कि इसी वाणी को स्वीकार था उन्हीं कि मूल भाषा रखने वाले नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने और कहा था कि -
"हिन्दी के विरोध का कोई भी आन्दोलन राष्ट्र कि प्रगति में बाधक है |"
मैं पूछता हूँ कि जब भारत के ऐसे - ऐसे महापुरुषों ने हिन्दी के महत्त्व को समझा और स्वीकार किया तो आज का समाज क्यों हिन्दी को स्वीकार नहीं कर रहा ,आख़िर हिन्दी में कौन सी ऐसी बुराई है कि हम हिन्दी को बोलना ही पसंद ही नहीं करते और अँग्रेज़ी बोलने में गर्व महसूस करते है | क्या हिन्दी वास्तव में इतनी बुरी चीज है कि हम उसे अपनाने में अपने आप को हीन समझते है | आज मैंने देखा है कि हिन्दी में बोलने पर स्कूलों में बच्चों को दण्डित किया जाता है , उन्हें कहा जाता है कि आपस में अँग्रेज़ी में बातें करो या फिर जुर्माना भरो |
आज हम एड़ी से लेकर चोटी तक अँग्रेज़ी को अपना रहे है | आज हम अपने आचार और विचार में महात्मा गाँधी द्वारा कही गई राक्षसी पश्चिम को पाना रहे है और देवता पूरब को घर से धक्के देकर बहार निकाल रहे है | लोगों आखिर हम ऐसा क्यों कर रहे है | क्या आज हम लार्ड मैकाले के उस उद्देश्य को पूरा नहीं कर रहे ,जिसमे उसने कहा था कि -"अँग्रेज़ी शिक्षा एक ऐसे वर्ग को तैयार करेगी जिसका रुधिर और रंग तो भारतीय होगा , किन्तु उनकी जो अपनी रुचि , सम्मति ,आचार ,व्यवहार और बुद्धि वों पूर्णतया अँग्रेज़ी होगी |"
आख़िर मुझे बताओ तो सही कि लार्ड मैकाले के जिस उद्देश्य का हमारे महापुरुषों और शहीदों ने विरोध किया उस उद्देश्य को हम आज क्यों पूरा कर रहे है ,क्या हम वास्तव में इन उद्देश्यों पर चलकर भारत के उन शहीदों को सच्ची श्रधान्जली दे रहे है ?
नहीं हम सच्ची श्रधान्जली नहीं दे रहे क्यों कि किसी महान व्यक्ति कि पुण्य आत्मा को सच्ची श्रधान्जली वाही है कि उस पुण्य आत्मा के विचारों हम अपनाए और उसके द्वारा अधूरे छोड़ कार्यों को पूरा करे | लोगों पत्थरों पर फूल चढ़ने से श्रधान्जली नही दी जाती बल्कि श्रधान्जली पाने वाले कि आत्माओ के विचारों को अपना कर उस आत्मा को श्रधान्जली दी जाती है |"
धन्यवाद !
जय - हिंद
विजयराज चौहान (गजब)
पूरा उपन्यास यहाँ देखे |

Saturday 2 August, 2008

मूल-मंत्र (कहानी)

झींगा शेर तालाब के किनारे काँस के झुंडों के बीच में अपने भूखे बच्चों और पत्नी के साथ बैठा सूरज की मीठी धूप में ऊँघ रहा था | इस समय उसकी आँखें बंद थी ओर वह अपने सुनहरे दिनों के सपनों में खोया हुआ था उसे अपनी जवानी के उन दिनों की याद आ रही थी जब वह खूब शक्तिशाली था उन दिनों का भी क्या रंग था ,क्या ताकत थी ,शरीर की चुस्ती ओर फुरती के आगे क्या मजाल थी कि कोई शिकार हाथों से निकल जाये | अगर उसे दिन में दो तीन बार भी शिकार के पीछे दौड़ना पड़ता था तो वह तब भी नहीं थकता था | लेकिन अब उम्र का तकाजा था कि अब उसे एक शिकार मरने के लिए भी तालाब के किनारे कई-कई घंटे इंतजार करना पड़ता था , ओर कभी तो पूरा दिन भी कोई शिकार नहीं मिलता था ओर भूखों ही सो जाना पड़ता था | उसकी यह हालत बूढ़े हो जाने के कारण थी क्योंकि अब उसके शरीर की शक्ति अब क्षीण हो चुकी थी इसलिए वह अब तालाब के किनारे पानी पीने आए एक-आध कमजोर पशु को ही मार पता था ओर उसे उसी से ही अपने परिवार की भूख को शांत करना पड़ता था |
लेकिन आज सुबह से शाम होने को आयी , तो भी कोई शिकार दिखाई नहीं दिया था |
झींगा शेर की माँद से कुछ दूर पर ही शेरू नाम का एक गीदड़ भी अपनी पत्नी रानी ओर अपने दो बच्चों के साथ एक बिल में रहता था |
शेरू के परिवार का पेट भी काफी हद तक झींगा शेर के शिकार के ऊपर ही निर्भर करता था क्योंकि जब झींगा किसी शिकार की मार डालता था तो शेरू का परिवार भी बची झूठन को कई दिनों तक खाता था |
लेकिन आज शेरू के परिवार का भी भूख के मरे बूरा हाल हुआ जा रहा था | लेकिन फ़िर भी वह अपने परिवार के साथ किसी शुभ घड़ी के इंतजार में, झींगे के ऊपर नजरे गडाये बैठा था |
आखिर जब सूरज छ्हेतिज में छूपने जा रहा था तो शुभ घड़ी आ पहुँची ओर एक दरियाई घोड़ों का झुंड तालाब किनारे आ पहुँचा | झुंड को देखते ही दोनों परिवारों में खुशी ही लहर दौड़ गई , झींगे ने भी झुंड को देखते ही अपनी स्थिति को संभाला ओर खड़ा होकर कमर को धनुष बनाते हुए अँगड़ाई ली | इसके बाद उसने हाथ पैरो को झटका ओर किसी पहलवान की तरह से आगे पीछे किया | इसके बाद उसने मूल-मन्त्र करने के लिए अपनी पत्नी को पास बुलाया जिससे झींगे के शरीर में एक उतेजना पैदा हो गई |
उसने अपनी पूछ को कमर पर मोड़ा ओर आखे लाल की, फिर उसने अपनी पत्नी से पूछा-
-”देखो तो जरा मेरी पूछ मुंड कर पीठ पर आ गई हैंया नही”
शेरनी ने कहा -”हां स्वामी आप तो प्रचंड योद्धा की तरह से लग रहे हो “
इसके बाद झींगे ने पूछा-
-”मेरी आँखें कैसी लग रही हैं”
शेरनी ने कहा -”स्वामी आप की आँखें तो इस समय ऐसी लग रही हैं मनो कोई ज्वालामुखी लावा उगल रहा हो “
झींगे ने इतना सुना तो वह पूर्ण रूप से उतेजित हो गया ओर उसने तूफान की गति से दौड़ कर एक ही झटके में एक कमजोर से दिखाई देने वाले दरियाई घोड़े को मार गिराया जिसे वह खींचकर अपने झुंड में ले आया |
इसके बाद पूरे परिवार ने व्रत तोड़ा ओर खूब डट कर खाया ओर फिर पेट पारा हाथ फिराते हुए अपनी माँद की तरफ़ चल पड़े |
झींगा शेर ने जब से शिकार किया तब से ही शेरू गीदड़ का परिवार भी उन पर आँखें गडाये बैठा था ,झींगे का परिवार पातळ से उठ कर चला तो शेरू झूठी पातळ को साफ़ करने के लिए उसकी तरफ़ दोडा ओर वह भी अपने परिवार सहित अपनी भूख मिटाने में जुट गया |
परिवार के सभी सदस्य झूठन को खा रहैंथे लेकिन शेरू की पत्नी रानी के मन में सुबह से व्रत करते-करते कुछ प्रश्न जमा हो रहे थे, जिन्हें पूछने का वह मोका तलाश रही थी |
आख़िर उसने भोजन करते-करते शेरू से पूछा -
-”स्वामी आख़िर हम कब तक दूसरों का झूठा खाते रहेंगे ,किया हम अपने लिए ख़ुद शिकार नहीं कर सकते “
शेरू ने रानी के ये वाक्य सुने तो मुँह चलते हुए बोला -
-”अरे जब तक मिलता हैंतब तक खाओ, आगे की आगे संचेंगे “
रानी त्योरिया चढाते हुए बोली -”नहीं आगे न खायेगे,तुम भी तो जवान हो,झींगा बूढ़ा हो चुका हैं लेकिन अब भी शिकार करता हैं किया तुम नहीं कर सकते “
रानी की इस बात पर शेरू चुप रहा,कुछ न बोला |
उधर रानी ने पेट भर खाया ओर बच्चों को को लेकर अपने बिल में जा लेटी | शेरू वही झूठन चाटता रहा लेकिन रानी फ़िर उसके साथ न बोली |
शेरू की झूठन ख़त्म हुई तो वह भी बिल की तरफ चला ,लेकिन उदास क़दमों से | उसे वास्तव में रानी ने सोचने के लिए मजबूर कर दिया था वह जाकर बिल में लेट जाता हैंलेकिन उसे नींद नहीं आती, वह सोच रहा था आख़िर झींगा इतना बड़ा शिकार कैसे मार लेता हैं, ऐसी कोन सी शक्ति हैंउसके पास जो उसमें बूढ़ा होने पर भी इतना जोश ओर ताकत पैदा कर देती हैं |
शेरू इन्ही विचारों में काफी देर तक उलझा रहा ओर यह सोच कर सोया की कल झींगे शेर की जासूसी करता हूँ ओर देखता हूँ की ऐसी कोन सी शक्ति हैं जो उसमें इतना जोश बार देती हैं| इतना सोच कर शेरू गीदड़ निश्चित होकर सो गया |
अगले दिन शेरू जल्दी जाग गया, उसने बिल से बहार मुह निकल कर देखा तो अभी काफी अँधेरा था, ओर पाला पड़ने के कारण काफी ठंड थी | लेकिन उसने उसकी परवाह नहीं की ओर वह अपनी पत्नी ओर बच्चों के उठने से पहले ही झींगे शेर की माँद की तरफ चल दिया ओर जाकर एक काँस के झुंड के पीछे छिप कर बैठ गया |
झींगा शेर अभी जागा न था, कुछ देर बाद सूरज की मीठी धूप चारो ओर फैली तो झींगा अपनी मांद से बहार आया ओर उसने कमर को धनुष बनाते हुए अँगड़ाई तोड़ी ओर फिर जाकर धूप में बैठ गया | इसके बाद उसके बच्चे ओर शेरनी जागी वे भी मांद से बहार आये ओर धूप में बैठ कर उंगने लगे, ओर झींगा अपनी उसी तलास में लग गया कि कब शिकार आये ओर कब वह उसे मार कर अपने आज के भोजन का इंतजाम करे |
काँस के झुंड के पीछे छिपा शेरू झींगे शेर कि इस सारी दिनचर्या बड़े ध्यान से देख रहा था ओर इस समय वह झींगे के हर पैंतरे को बड़े ध्यान से सीख कर रहा था |
झींगा अपने परिवार के साथ धूप में बैठा था तो एक जंगली भैंसा पानी कि टोह में उधर से आ निकला, वह धीमे ओर टूटे क़दमों से चल रहा था देखने से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि शायद वह बीमार था ओर बीमारी में अपनी प्यास बुझाने तालाब किनारे आया था |
आख़िर जब झींगे ने जंगली भैंसे को देखा तो उसे सुबह-सुबह पै-बारह होते नजर आये ओर वह भैंसे को देखकर खड़ा हो गया |
झींगे शेर के खड़े होते ही शेरू गीदड़ के भी कान खड़े हो गये, उसकी एक आँख शिकार पर लगी हुई थी तो दूसरी आँख झींगे कि हर हरकत को बारीकी से देख रही थी |
ज्यों ही भैंसा तालाब में पानी पीने के लिए घुसा तो झींगे शेर ने अपना मूल-मंत्र पढ़ा |
वह पास बैठी शेरनी से बोला -”देखो तो जरा मेरी पूछ मुंड कर पीठ पर आ गई हैं या नहीं”
शेरनी ने कहा -”हां स्वामी आप तो प्रचंड योद्धा की तरह से लग रहे हो “
इसके बाद झींगे ने पूछा-
-”मेरी आँखें कैसी लग रही हैं”
शेरनी ने कहा -”स्वामी आप की आँखें तो इस समय ऐसी लग रही हैं मनो कोई ज्वालामुखी लावा उगल रहा हो “
शेर ने इतना सुना तो वह पूर्ण रूप से उत्तेजित हो गया ओर इससे पहले कि जंगली भैंसा पानी पीकर अपनी प्यास बुझाता, झींगे शेर ने एक ही वार में तूफान कि गति से आगे बढ़कर भैंसे को धराशाई कर दिया ओर उसे खींचकर अपने झुंड में ले आया |
काँस के झुंड के पीछे छुपा शेरू गीदड़ झींगे की ये सारी हरकत देख रहा था उसने जब झींगे का मूल-मंत्र सुना तो खुशी से झूम उठा ओर खुशी को कारण जमीन में लोटपोट हो गया | उसने भी आज शक्ति के उस मूल-मन्त्र को पा लिया था जिसे पढ़कर वह भी अधिक शक्तिशाली हो सकता था | वह धूल से उठा ओर खुशी से कुचले भरता हुआ अपने बिल में जा घुसा |
शेरू की पत्नी रानी अब तक जग चुकी थी उसने शेरू को इतना खुश होते देखा तो बोली -
“क्या बात हैं बड़े खुश नजर आ रहे हो,ऐसा सुबह-सुबह किया मिल गया जो तुम फूले नहीं समां रहे हो”
शेरू बच्चों के पास बैठते हुए टांग पर टांग रखकर बोला -
“तुम कहती थी ना में शिकार नही कर सकता ओर में डरपोक और भुज दिल हूँ,तो तुम झूठ बोलती थी,तुम नहीं जानती मेरे अन्दर कितनी शक्ति हैं,में चाँहू तो अच्छे से अच्छे बलशाली को धूल चटा सकता हूँ |
रानी त्योरिया चढाते हुए बोली - “रहने दो कभी किसी चूहे का शिकार तो किया नही,कहते हो बलशाली को धूल चटा सकता हूँ “
शेरू रहस्यमय मुस्कान होठों पर लाते हुए बोला -”अरे तुम्हें किया पता ,जब में तुम्हें अपनी शक्ति दिखाऊंगा तब देखना दांतों तले उँगली दबा लोगी,तुम बस ऐसा कहना जैसा में कहता हूँ “|
रानी -”ठीक हैं कह दूंगी लेकिन कुछ कर के तो दिखाओ “|
इसके बाद शेरू का पूरा परिवार उठा और जाकर तालाब किनारे काँस के झुंड में छिपकर बैठ गया, और शेरू इस बात का इंतजार करने लगा की कब कोई शिकार आये और वह उसे अपने मूल-मंत्र से धराशायी करे |
शेरू को अपने परिवार सहित काँस में छुपे-छुपे शाम हो गई थी | सूरज अब डूबने ही वाला था लेकिन शेरू को अब तक कोई ऐसा शिकार दिखाई नहीं दिया था जिस पर वह अपना मूल-मंत्र आजमा सके |
आखिर जब शाम होने को आयी तो दरयाई-घोडो का वही झुंड जो कल आया था तलब किनारे पानी पीने आ पंहुचा | जिसे देखते ही शेरू गीदड़ के मुह में पानी भर आया और उसके पैरो में खुजली होने लगी और ज्यो ही घोडो का झुंड तालाब में पानी पीने घुसा तो शेरू खड़ा हो गया | उसने भी अपनी कमर को धनुष बनाते हुए अँगड़ाई तोडी और अपनी पत्नी रानी से मूल-मंत्र पढ़ते हुए बोला -
“देखो तो जरा मेरी पूछ मुड़कर पीठ पर आ गई हे या नहीं ” |
रानी -”हाँ स्वामी आप तो इस समय एक प्रकांड योद्धा की तरह लग रहे हो” |
शेरू आँखें निकलते हुए -”और मेरी आँखें तो देखो लाल हुई या नहीं ” |
रानी -”हाँ स्वामी आपकी तो इस समय ऐसी लग रही हे मनो ज्वालामुखी लावा उगल रहा हो” |
शेरू ने इतना सुना तो वास्तव में उसे अपने अन्दर एक शक्ति सी जान पड़ी | वह तेजी से काँस के झुंड के ऊपर से कूदते हुए किसी तूफान की तरह से एक दरियाई घोड़े पर कूद पड़ा |लेकिन ज्योंही शेरू ने घोड़े की पिछली टांग में अपने दांत गाड़ ने चाहे तो घोड़े ने अपनी शक्तिशाली दुल्लती से शेरू को काँस के झुंडों के ऊपर से दर्जनों मीटर दूर फेक दिया, जिसके कारण जमीन पर पड़ते ही शेरू का मुंह जमीन में चार-पाँच अंगुल नीचे धस गया |
उसकी लाल ज्वालामुखी आँखें धूल मिट्टी के कारण सूखे कुए की तरह से रूँध गई और उनका लाल रंग भी पीला-पीला सा दिखाई देने लगा | इसके आलावा उसकी धनुष रूपी पूँछ भी टूटकर नीचे को मुड़ती हुई किसी पिटी भिखारिन की भांति दोनों टाँगों के बीच में छुप गई |
इतना सब होने के बाद शेरू अपनी टूटी टांग से खड़ा हुआ और किसी पैर बंधे ख़च्चर की भांति लंगड़ता हुआ अपने बिल की तरफ़ चल दिया |
शेरू की महेरिया रानी अपने बच्चों के साथ इस समय दूर से अपने स्वामी की इस वीरता को देख रही थी |
लेकिन जब उसने स्वामी को स्वादिष्ट शिकार की जगह जंगली धूल खाते देखा तो उसे बड़ा दुःख हुआ और वह खबर लेने के लिए अपने स्वामी की तरफ़ दोड़ी | एक बार रानी डर गई थी लेकिन अगले ही पल शेरू की हालत पर रानी हँस पड़ी उसने ्र की इतनी बुरी हालत आज से पहले कभी नहीं देखी थी |
शेरू ने जब पत्नी के द्वारा उपहास होते देखा तो वह जल उठा और वह रानी हो जलती आँखों से देखते हुए अपने बिल की दीवार के पास बैठ कर अपनी टांग के दर्द को जीब से चाटने लगा | लेकिन रानी को अब भी अपने स्वामी की इस मूर्खता भरी वीरता पर हँसी आ रही थी और वह हँसी के कर्ण मिट्टी में लोट-पोट थी |

-विजय-राज चौहान