Saturday, 27 September 2008
चढ्ढा साहब सिगरेट सुलगाये पलंग पर तकिया के सहारे लेटे दम लगा रहे थे |
दीनू आँगन में चारपाई पर बैठा हुक्का गुडगुडा रहा था, हरिया को देखते ही -”आओ हरिया आओ ,क्या हाल है ?”
-”ठीक है भैया “-हरिया ने इतना कहा और वह चारपाई पर बैठ जाता है
-"कहो कैसे आना हुआ|"
हरिया -"भैया तुम तो जानते ही हो जब गाँव में नहीं थे तो ठीक था ,लेकिन जब अब आ गए है तो खाने के लिए अनाज आदि भी चाहेगा,सोचता हूँ नहर के पास में जो जमीन वर्षो से खली पड़ी है मे उस में अनाज बो दूँ ,लेकिन हल बैल कौन देगा|"
दीनू -”कैसी बात करते हो हरिया, भला मेरे बैल किस दिन काम आवेंगे | तू परेशान न हो , जब हम लोग ही एक दूसरे की सहायता नहीं करेंगे तो कौन करेगा ,कल सुबह ही दोनों खेत पर चलेंगे और खेत की जुताई करेंगे |"
हरिया -”मे तेरा अहसान कभी नहीं भूलूँगा दीनू |"
दीनू -”क्यों शर्मिंदा कर रहे हो,मे किसी पर अहसान नही कर रहा,बुरे दिनों मे एक दुसरे के काम आना अहसान नहीं बल्कि अपना फर्ज है |"
अगले दिन सुबह दीनू बैल और हल लेकर खेत की तरफ चल देता है | हरिया उसके पीछे कंधे पर फावड़ा रखे और हाथ में हुक्का लिए चल रहा था | दोनों खेत में पहुँच जाते है | वर्षो से खाली पड़ी जमीन काफी बंजर हो गई थी | साडी जमीन में दूब-घास आदि उग आए थे,कही-कही झाडियो के पेड़ भी उग आये थे | हरिया खेत में पहुँचता हें तो धरती माँ को प्रणाम करता है | वह माचिस से आग सुलगा देता है |दीनू हल चलाने लगता है | हरिया फावड़े से झाडिया आदि साफ़ करने लगता है | दोपहर को दीनू की पत्नी फुलवा खाना लेकर आती है |दोनों एक साथ बैठ कर खाना खाते है और फिर बैठ कर हुक्का गुड़गुड़ाते है | शाम तक वे दोनों पूरे खेत को साफ़ कर देते है | अगले दिन दीनू बीज लाकर खेत में बुवाई करता है |अब वे एक दूसरे का सहारा बन गए थे और साथ-साथ खेती करने लगे थे |
*******
लगभग दो महीने बीत जाते है | रूबिया के बालक खोने का रंज दूसरे बालक ने भूला दिया था | वह अपने एक बालक के साथ खुश थी लेकिन घर में पड़े-पड़े वह बंधन सा महसूस करने लगी थी ,काफी दिनों से उसके ब्यूटी-पार्लर का काम भी अच्छा नहीं चल रहा था |
शाम के आठ बजने को जा रहे थे | वह बालक को पलने में लिटा देती है और किचन में जाकर खाना बनने लगती है | कुछ देर के बाद गाड़ी आकर रुकती है | चढ्ढा साहब दफ्तर से आ गए थे ,उनके हाथ में दो बड़े थैले थे जिनमे घर का कुछ सामान और सब्जिया थी, जिन्हें वो लाकर किचन में रख देते है और हाथ पैर धोने के लिए बाथरूम चले जाते है |रूबिया मेज़ पर खाना परोस देती है | दोनों बैठ कर खाना खाते है | लगभग रात के ग्यारह बज चुके थे , खाना खाकर वो अपने बेडरूम में चले जाते है |
चढ्ढा साहब सिगरेट सुलगाये पलंग पर तकिया के सहारे लेटे दम लगा रहे थे | रूबिया भी उनके सीने पर हाथ रखे उनकी बगल में लेती हुई थी |
पूरा उपन्यास पढ़ने पके लिए यहाँ चटका लगाये |
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